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Showing posts from 2017
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हर सर्द अँधेरी सुबह सुबह जब रात हो भीनी भीनी सी तू ओस ओस टपकती है हर सर्द अँधेरी सुबह सुबह तू फ़िज़ा फ़िज़ा सी घुलती है मद्धम मद्धम मेरे कानों में तू नर्म हवा की हरकत है हर सर्द अँधेरी सुबह सुबह खिलते फूलों की चिरकन है जब होंठो को छूकर गुज़रे भाप में लिपटा नाम तेरा हर सर्द अँधेरी सुबह सुबह वो लफ्ज़ बने आयत मेरा मेरे खातिर तेरा नाम ही इक काफिर हालत का क़ामिल है हर सर्द अँधेरी सुबह सुबह मेरे सज़दे के जो काबिल है देवयशो
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बाबा(पिताश्री)

मनु शर्मा का जाना

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मनु_शर्मा_का_जाना ( १९२८ से ०८-११-२०१७ ) एक कहानी और एक खबर है, दोनों एक साथ सुना रहा हूँ! खबर ..! पहले खबर से शुरू करता हूँ.. खबर ये की दो दिन पहले मनु शर्मा जी का देहावसान हो गया। इसतरह एक और * पद्मश्री * मिटटी में विलीन हुआ, *8 खण्डों और 3000 पृष्ठों पर " कृष्ण की आत्मकथा "* लिखने वाला वह कालजयी रचनाकार राख बन गंगा में जा बैठेगा.. अस्थियां बन लहरों में बहेगा..! अब कहानी..!      मुझे याद है जब मैं कक्षा 3 में पढ़ता था और मुझे अपने पिताजी के लकड़ी की आलमारी में मनु शर्मा की तीन किताबें मिली, " द्रोण की आत्मकथा','कर्ण की आत्मकथा' और 'एकलिंग का दीवान ' "। मैंने उनमे से एक चुरा ली,पढ़ने के लिए क्योंकि उस वक़्त मुझे लगता था की सुपर कमांडो ध्रुव,बांकेलाल,हवलदार बहादुर,पिंकी,चन्दामामा,चाचा चौधरी,डोगा, परमाणु,योद्धा,भेड़िया और नागराज के कॉमिक्स पढ़ना उतना ही बड़ा गुनाह है जितना जुआ खेलना या फिर हीरो हिरोइन को छोटे कपड़ों में ठुमकते देखना। इसलिए क्योंकि मेरा बचपन 90' के दौर में बीता है जब हम "किताबें बहुत सी पढ़ी होंगी तुमने..या "ये

एक वक़्त आता है..

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एक वक़्त आता है...! एक वक़्त आता है, जब अंदर ही अंदर सब चुप हो जाता है.. न कोई रूह बोलती है, न तब दिल गुनगुनाता है, चुप हो जाती है ज़मी, आकाश खामोश हो जाता है, एक वक़्त आता है, जब अंदर ही अंदर सब चुप हो जाता है.. न कोई राह हँसती है, न तब वक़्त मुस्कुराता है, चुप हो जाती है घड़ी, इंतज़ार खामोश हो जाता है, एक वक़्त आता है, जब अंदर ही अंदर सब चुप हो जाता है.. तब आँखे दूर नज़र जमाये दरसल कुछ नही देखती, ये वो दौर होता है जब किसी के होने न होने का, फर्क नही पड़ता पर असर दिख जाता है.. जब ख्याल दूर तलक जाए पर कुछ भी नही सोचती, ये वो दौर होता है जब किसी के होने न होने का, अर्थ नही होता है पर कसर दिख जाता है.. नस्ले आदम ही हैं सब, देवता कोई नही, सबकी ज़िन्दगी में बुरा अच्छा सा ही सही.. एक वक़्त आता है, जब अंदर ही अंदर सब चुप हो जाता है.. देवयशो 👤🕊🌾
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प्रकृति_संरक्षण_को_समर्पित                 अगस्त्य_के_पुष्प :- (Sesbaniya_grandiflora) साथियों !  अक्टूबर के इस मदमस्त मौसम में आपका परिचय कराते हैं अगस्त से.. जी नही, अगस्त महीना नही,प्रकृति के एक अनमोल और दुर्लभ अगस्त्य वृक्ष से.. ☺ पर्यायवाची : अगस्त,अगस्त्य,अगति,मुनिदुम,मुनिपुष्प,वंगसेन आदि कुछ संस्कृत नाम हैं। हिंदी में हथिया अगथिया या अगस्त, बांग्ला में बक(बगुला),गुजराती में अगथियो, तेलगु में अनीसे, अविसि,तमिल में अगस्ति और सिंहली में कुतुर्मुरङ्ग कहा जाता है। इसे अंग्रेजी में हमिंगबर्ड ट्री भी कहते हैं। जन्मस्थान:- कुछ विद्वान कहते हैं की यह भारत में बाहर से लाया गया परन्तु सत्य यह है की इसी पेड़ के नीचे बैठ कर अगस्त्य ऋषि तपस्या करते थे इसलिए इसका नाम अगस्त्य पड़ा। चूँकि इसका वर्णन सुश्रुत में भी है। यह भारत में सभी नम और गर्म स्थानों पर पाया जाता है। अगस्त्य के पुष्प तारा नक्षत्र के उदय होने पर अक्टूबर से दिसंबर तक पुष्पित होता है और मार्च महीने तक फलता फूलता है। गुण :-अगस्त्य के फूल सफेद अथवा गुलाबी रंग के होते हैं, जो शीत_ऋतु में लगते हैं।  इस पेड़ में आयरन,
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ख्वाब   १:- ख्वाब जाड़े की शाम का 🏕🕊👤 मन्दिर में स्पंदित होकर बजती हो पूजा की घण्टी सब्ज़ रंग की चादर ओढ़े सर्दी की इक शाम हो लेटी मिट्टी की सड़क हो कच्ची पीले सरसों के खेत हो सौंधे नदिया के दोनों पाटों पर दोनों साहिल लेटे हो औंधे जोड़ा हो चिड़ियों का और जोड़ रहें हो पाती पाती तिनका तिनका बीन रहे हों दो नन्हे से प्यारे पाखी ठण्डी धूप हो मद्धम मद्धम जिसमें मिली हो थोड़ी छाँव खेतों बीच मड़ैया अपनी जहाँ से थोड़ी दूर हो गाँव दूर क्षितिज पर एक बटोही खेता हो इक छोटी नाँव बहती जाती चुपके चुपके नदिया भी नंगे ही पाँव और... फूस का हो एक छोटा सा घर एक बाहर झूला लटका हो मिटटी का इक चूल्हा भी हो लटका छप्पर से मटका हो एक तखत हो पतला सा बस हम दोनों ही लेटें हों घर के सारे काम छोड़ कर इक दूजे को समेटे हों.. बेसुध सी तुम लेटी रहना और मेरा एक पैर हो तुमपर खोल तुम्हारी जुल्फ़े लेटूँ बिखरा लूँ उनको मैं खुदपर बाहर आम के पत्तों से जब शीत गिरेगी टपक टपक कर सो जाना तुम कसके मुझको सीने पर मेरे ठुड्डी रखकर देखा है एक ख्वाब ये मैंने हो जाड़े की ऐसी शाम पीठ पे तेरे लिखत
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चाँद देखा है आज देखना! एक बादल को पटरा बना कर.. चाँद को धुरी बना.. बच्चों की तरह.. see-saw खेलेंगे.. एक तरफ तुम बैठना, एक तरफ मैं बैठूंगा.. और चाँद को सहारे के लिए तुम पकड़ना तुम्हे सहारा दे सके,  इसलिए थोड़ा सा चाँद मैं भी पकडूँगा.. तुम्हारे दुपट्टे   से उस सूरज को ढ़क देंगे.. ताकि सवेरा जल्दी न हो.. सवेरा होते ही तुम्हारे माथे पर एक बोसा लूँगा.. वैसे ही जैसे झुक कर तुम मेरे बोसे सम्भालती हो.. वैसे ही थोड़ा झुक जाना.. तुम्हारे दुपट्टे में कुछ सितारे टांक दूंगा. और तोहफे में कुछ न दे पाया जो तुम्हे.. इस बार तोहफे में .. यही चाँद ले लेना.. पूर्णिमा का चाँद.. हाथ से जैसे तुम रोटी बनाती हो.. कुछ वैसे ही उसे चिपटा कर दूंगा.. और चूम के चाँद को.. तुम्हारे माथे की बिंदी बना दूंगा.. पता है तुम कैसी लगोगी.. इस सवाल का यही जवाब है,  इक सवाल सा जवाब.. मेरी रूहानगी सी !! चाँद देखा है आज?? देवयशो
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पलाश!! तुम्हारा खत पढ़ा! पढ़ा,कई बार पढ़ा..! हर बार मेरी नज़र तुम्हारे लिखे हर्फ़ दर हर्फ़ को चूमती जाती हर बार मेरी नज़र तुम्हारे भरे  ज़ज़्बात दर ज़ज़्बात चुनती जाती जब नज़रों ने भर लिया प्रेम अपार! पलाश! टपक पड़ी आँखे,गिरे बूँद हज़ार..! खत के आखिर में जहाँ मेरा नाम लिखा है और मेरे नाम पर तुम्हारे अधरों का रंग लगा है बेशक वो लाल रंग तुम्हारे पंखुडियों सी नाज़ुक नर्म होंठों के छुअन का प्यारा सा एहसास है वो हिस्सा हमेशा हमेशा मेरी रूह के पास है इस तरह! मेरे उस दस्तावेज को तुमने अग्रसारित कर दिया है पलाश! एक अदद उस कागज पर , सर्वस्व  तुम्हारे नाम किया है एक अदद उस कागज़ पर हर जन्म तुम्हारे नाम किया है देवयशो 4 नवम्बर 2017