मनु शर्मा का जाना

मनु_शर्मा_का_जाना

(१९२८ से ०८-११-२०१७)


एक कहानी और एक खबर है, दोनों एक साथ सुना रहा हूँ!

खबर..!
पहले खबर से शुरू करता हूँ..
खबर ये की दो दिन पहले मनु शर्मा जी का देहावसान हो गया। इसतरह एक और *पद्मश्री* मिटटी में विलीन हुआ, *8 खण्डों और 3000 पृष्ठों पर "कृष्ण की आत्मकथा"* लिखने वाला वह कालजयी रचनाकार राख बन गंगा में जा बैठेगा.. अस्थियां बन लहरों में बहेगा..!

अब कहानी..!
     मुझे याद है जब मैं कक्षा 3 में पढ़ता था और मुझे अपने पिताजी के लकड़ी की आलमारी में मनु शर्मा की तीन किताबें मिली, " द्रोण की आत्मकथा','कर्ण की आत्मकथा' और 'एकलिंग का दीवान' "।
मैंने उनमे से एक चुरा ली,पढ़ने के लिए क्योंकि उस वक़्त मुझे लगता था की सुपर कमांडो ध्रुव,बांकेलाल,हवलदार बहादुर,पिंकी,चन्दामामा,चाचा चौधरी,डोगा, परमाणु,योद्धा,भेड़िया और नागराज के कॉमिक्स पढ़ना उतना ही बड़ा गुनाह है जितना जुआ खेलना या फिर हीरो हिरोइन को छोटे कपड़ों में ठुमकते देखना। इसलिए क्योंकि मेरा बचपन 90' के दौर में बीता है जब हम "किताबें बहुत सी पढ़ी होंगी तुमने..या "ये काली काली आँखे,ये गोर गोर गाल.." न सुनकर गुलज़ार साब के 70's के गाने सुनते।
उन गर्मियों की छुट्टियों में हम दादा दादी के घर नही जाते थे बल्कि वह हमारे पास आ जाते। कब तक शक्तिमान और तमराज किल्विष या कपाला देखते। हमेशा गुल रहने वाली बिजली ने हमे किताबों से दोस्ती बढ़ाने को मजबूर किया था और हम(हम से तात्पर्य हम तीनों भाइयों से है) सवेरे और शाम शतरंज खेलते और बाकी समय पिताजी से छिप कर कॉमिक्स पढ़ते।

मुझे अपने घर के ही लकड़ी के उस आलमारी में(आजकल वो मेरे कमरे में ही रखा है और मैं उसमें किताबें कम कपड़े ज्यादा रखता हूँ) तिलस्मी दुनिया दिखती थी। कक्षा 2 में था जब मैंने *सहस्त्र_रजनी_चरित्र* पढ़ा जिस उपन्यास पर *अलिफ़_लैला* बनाई गयी थी। शायद इसलिए मुझे कभी अलिफ़ लैला अच्छा नही लगा।

मैं बता रहा था मनु शर्मा के बारे में, गर्मी की छुट्टियां खत्म हो गयी थी और बाबा और मैं अक्सर उस कमरे में एक दूसरे पर लेटे लेटे किताबें पढ़ते, किताबें पढ़ते पढ़ते बाबा की लम्बी दाढ़ी में उंगलियां फिराना मुझे भी उतना ही पसन्द था जितना बाबा को और मुझे इस बात का डर भी नही लगता की पिताजी मुझे मनु शर्मा की किताब पढ़ने पर  दो चार जड़ देंगे, बाबा हैं न,  बचा लेंगे मुझे,और मैं भी झूठ बोल दूंगा "बाबा पढ़ रहे हैं, मैं तो बस देख रहा हूँ"..
तो बस.. वहीं से मैंने इन mythology के चरित्र पढ़े, पहले पढ़ा द्रोण की आत्मकथा,फिर कर्ण की,और फिर एकलिंग का दीवान..
  मनु शर्मा को पढ़ कर लगता नही था की सच में ये mythology के चरित्र उतने नाटकीय हैं जितने रामानंद सागर के चरित्र हैं। मुझे लगता की ये सब कितना सच्चा है और कितने बेहतरीन तरीके से लिखा गया है।
मनु शर्मा की उन किताबों को पढ़ता तो सारी भूख प्यास मिट जाती, बस 12 बजे बाबा से मांग के उनकी जेब से 2 रूपये निकालता और दो समोसे  ले आता, नीबर चाचा की दूकान से, एक मंझले भैया खाते, एक मैं.. चुपके से, और चुपके चुपके ही उस समोसे का स्वाद और मनु शर्मा का लेखन मेरे जेहन में घुलता जाता। हाहाहा!कहाँ मनु शर्मा कहाँ नीबर चाचा.. मैं भी लौकी के चोखे पर चीज़ की टॉपिंग रख देता हूँ।
पर क्या करूँ बचपन में ये दोनों एक साथ हुई, शुक्र है उस वक़्त एंड्राइड ने बच्चों का बचपन नही छीना था और पिज़्ज़ा ने बच्चों का सपाट पेट..
खैर!
बचपन की हर बात निराली होती है। आज मुझे ठीक से याद नही कुछ ,हाँ!लगता है आज भी बिस्तर पर लेटे लेटे एक पैर बाबा पर रख,एक पैर मंझले भैया पर रख मनु शर्मा की कोई किताब पढ़ रहा हूँ, मैं बिना शब्दकोश खोले ये समझ रहा हूँ की *चषक* गिलास को कहते थे और द्रोण हो या सूत पुत्र कहलाने वाला कर्ण,ये सब कहीं जाने पर दुग्धपान करते थे।
जितने सरल भाव से और परिष्कृत हिंदी में मनु शर्मा जी ने उन उपन्यासों को लिखा उसे मैंने सर्वश्रेष्ठ जाना। आज भी मानता हूँ, मैंने ज्ञानपीठ पुरस्कार से विभूषित विष्णु सखाराम खांडेकर जी का वह उपन्यास पढ़ा जिसके लिए उन्हें *"साहित्य अकादमी"* का पुरस्कार भी मिला था और वह उपन्यास था *"ययाति"* जिसका हर एक पन्ना मुझे मनु शर्मा की याद दिलाता रहा। हालाँकि वह उपन्यास मराठी में लिखा गया था और मैंने उसका हिंदी अनुवाद पढ़ा मगर भाव वैसे ही जगे जैसे कभी मनु शर्मा को पढ़ का लगा था।
             मनु शर्मा की लेखनी में एक प्रयास दीखता है,एक दमदार पैनी नज़र जिसने जिधर नज़र फिराई सब एक्स-रे की तरह दिख गया। बहुत ज्यादा रंग नही भरते,सौम्य और शांत ब्लैक एंड व्हाइट.. न दुखांत का आग्रह,न सुखान्त का दुराग्रह..
इस कालजयी रचनाकार ने मुझे बेहद प्रभावित किया, चेख़व,पुश्किन और टॉलस्टॉय के हिंदी अनुवादों से भी ज्यादा। शायद अपनी भाषा में सब कुछ ज्यादा समझ आती है। और शायद इसलिए मनु शर्मा की लेखनी में मुझे अपने मिटटी की महक आती है।

मनु शर्मा ने सही कहा था..
  आज नहीं तो कल,कल नहीं तो परसों,परसों नहीं तो बरसों बाद मैं डायनासोर के जीवाश्म की तरह पढ़ा जाऊँगा।

मेरी ये पत्र भी शायद किसी जले हुए धुएँदार कागज की तरह पढ़ा जाए। कोई मुझे खोजते खोजते मनु शर्मा को पढ़ जाए, कोई मनु शर्मा को खोजते खोजते मेरा नाम पा जाये।

देवयशो

१०-११-२०१७
तारामण्डल
गोरखपुर
(उ0प्र0)

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